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गुरुवार, 16 अगस्त 2012

मेरा देश प्यारा

चंदन सी खुशबू माटी का गंध हो
फूलों से महकता हवा में  गंध हो
देश मेरा प्यारा विश्व का सिरमौर हो
नभ में चमकता सूरज सा प्रचंड हो . 

नदियाँ जहां जीवन का राग गाती हों
चिड़िया चह-चहाती प्यार का मन्त्र हो
युवाओं में तैरता सागर सा तरंग हो
जन-जन में भरा स्वर्ग सा उमंग हो . 

तीन छोरों से घिर रक्षा जलधि करे
सीमा में खड़ा प्रहरी हिम उत्तुंग हो
सभ्यता की तितलियों सा रंग हो
वीरों की धरा यह फहरता तिरंग हो

मंदिर,मस्जिद,चर्च,गुरुद्वारे यहाँ
ईद में मिलन व होली का रंग हो
गुरुग्रंथ,गीता,बाइबिल,कुरआन में
सत्य,प्रेम,अहिंसा का अनुगूँज हो  . 

अहोक,अकबर सा गांधी महान हों
शहीदों के रक्त से जिसका श्रृंगार हो
नानक,कबीर,रैदास जैसे संत हों
चैतन्य महाप्रभु और विवेकानंद हों  . 

गंगा,यमुना,सतलुज,सिन्धु,ताप्ती 
गोदावरी,कावेरी की कथा अनंत हो 
फसलें लह-लहाती धरती हरी-भरी हो 
पल्लवित संस्कृति युगों से सिंचित हो .

रोग, भय, भूख, कुपोषण, गरीबी 
महगाई की मार का न आतंक हो 
शिक्षित हों बच्चे,मुख में मुस्कान हो 
रामराज्य का साकार संकल्प हो 



मंगलवार, 14 अगस्त 2012

लहरें

लहरों की अजब चालें है उलटी 
पास आती चीजों को दूर फेकती 

भूमि को थप-थापाती हैं प्यार से 
धीरे-धीरे आगोश में है भर लेतीं 

ले लेतीं हैं रंग धरती का उससे 
फिरकी ले-लेकर हैं नृत्य करती 

कतरा-कतरा गिर-गिरकर बूँदें 
लहर बनकर फिर कहर हैं करतीं 

रोम-रोम भिगो,स्वर्गीय सुख देतीं
ग्रीष्म तपी भूमि को हैं तृप्त करतीं 

दे धरती को हरियाली,वापस जातीं 
तटबंधों में जा आराम है फरमाती    

आइना हर युग का सच तेरे पास रखा है
साहित्य,कला, संस्कृति में सजा रखा है

आइना बयान करता है सच रौशनी का 
अन्धेले का सच नहीं कहता,चुप रहता है 

मेरी आँखे मुझे नहीं देख पाती,फिरभी 
आइना मेरा सच-सच बयान करता है 

छोटी-बड़ी,आड़ी-तिरछी,ऊँच-नीच हर
परिस्थितियों का ज्ञान आइना रखता है 

अवतल,उत्तल,कई प्रकार आइना का 
आकार के पहले उसका प्रकार देखना है 

गत-आगत का एहसास कराता आइना  
कभी झूठ-सच,कभी भ्रम पैदा करता है 

उलझ जाता है मन देख श्वेत केशों को  
ऐ आइना!तू रंगों का सच, पाता कहाँ है 

आइना तू सच बोलता है तो बता सच 
आज तो मैंने बालों में रंग करा रखा है 

हर एक चेहरा आइना है,प्रतिबिम्ब भी 
आइना,आईने में अपनी अक्स ढूढ़ता है 


सोमवार, 13 अगस्त 2012

खंटियों में टंगा सच


थके-हारे
शाम को 
पिताजी घर लौटे 
अदालत से
छड़ी कोने में रखा
झोला और कुर्ता
खंटियों में टाँगे
एक गिलास पानी ले
माँ आगे आयीं
पूछा उनसे "क्या हुआ ?"
हतास स्वर में पिताजी बोले
उँगलियों से इंगित कर,"देख !
खंटियों में लटक रहा'सच'
कुर्ता और झोले की तरह
वर्तमान में चल रहा बस
'फरेब!"

रविवार, 12 अगस्त 2012

कहाँ सुदर्शन-चक्र है ?

मगर आ गया है ले परिवार अपना 
पूरे तालाब को जागीर बना लिया 
सफाचट करते जा रहे हैं जीवों को 
आकार बढ़ता जा रहा है उनका 
भाग रहे हैं जलचर विकल इधर-उधर 
न्यायान्याय,झूठ-सच नहीं है मुद्दा 
थलचर-नभचर पानी नहीं पी सकते 
बना लेते हैं ग्रास मगरमच्छ अपना 
मगर ने पकड़ लिया पाँव गजराज का 
गज कर रहा आरत पुकार है प्रभु का 
क्यों कर रहे देर विनाशय च दुष्कृतः  ? 
चक्रधर!कहाँ है सुदर्शन चक्र आपका ? 

(साथियो !भ्रटाचार ही वह मगरमच्छ है जिससे पूरा देश त्रस्त है )          

शब्दों का वजन

पानी की लकीर 
पत्थर की लकीर 
मूल्यहीन-शब्द 
मूल्यवान-शब्द 
बात हवा की, बात हवा में 
बात हथौड़े सा,प्रहार चट्टान में 
सौ घाव सुनार का 
एक घाव लुहार का 
शब्द,घिसे सिक्के 
फिसल गए हाथ से 
शब्द,पाँव से 
काई जमे चट्टान में 
शब्द,शिलालेख अमिट 
प्रतिध्वनित हो रहे हजारों वर्षों से 
इतिहास के परतदार पन्नों में 
ये मूल्यहीन शब्द !
वो मूल्यवान शब्द !!

यात्रा मूलाधार से


सरोवर के तलछट में 
जमे पंक में 
पैदा हो 
बाहर निकला गहरे जल से 
सुरत -निरत का नाल ,
खिला सहस्त्र-दल ,उस पर अलिप्त
निरखें हंस
सहस्त्र चन्द्र
निरभ्र-नभ में गुंजित
अनहदनाद !

शनिवार, 11 अगस्त 2012

झोंकों में पुष्प-पंखुड़ी बिखरती रहीं 
जीवन अपनी बेबसियाँ कहती रहीं 

सारी रात फूल बारिश में भीगते रहे 
शुबह की  धूप में आँखें जलती रही  

उठो भी अब चलने का वक्त आया 
भोर की हवाये कान में फुसफुसा रहीं 

बौछारों में तितलियाँ भटकती रहीं 
छुपने का  ठिकाना तलाशती रहीं 

खोने के लिए अब कुछ पास न रहा 
एक मकान था,बारिश गिरा गयी 

अँधेरे में जुगनू टहलते रहे हवा में 
नाकामियाँ कहानियां कहती रहीं 

मंगलवार, 7 अगस्त 2012



 मिजाज की तरह मौसम बदल जाता है
कभी धूप कभी बरसात नज़र आता है 

ऊफ़ानों में तैरती कश्तियों का भाग्य 
ऐ खुदा ! तूने रेत पर लिखा रक्खा है  

रहम कर इन खौफ़नाक मंजरों से 
तू है बनाने वाला,तू ही मिटा रहा है 

रेत पर बने इन हवेलियों की कीमत  
सबको पता,पर नहीं किसी को पता है  

पत्तियों पर शबनमी मोती है जीवन 
अभी आये थे और अभी चले जाना है .

प्रभु के नाम भक्त की पाती

मेरी 87 वर्षीय माँ लकवा-ग्रस्त होकर बिस्तर में पड़ी हैं .प्रभु के नाम यह पाती, मैं उनकी तरफ सेलिख रहा हूँ .

                                                              
द्वार में वन्दनवार सजाया                           उपवास रखा धर्म-पथ पर चला 
करा जल प्रक्षालन,वस्त्र पहनाया                   दान किया,जीवों पर दया किया 
चन्दन घिस तिलक लगाया                         आठो-याम तेरा ध्यान किया 
केशर और सुगंधि  लगाया .                         अनजाने में ही कोई पाप किया 

दूर्वा-दल,बेल-पत्र चढ़ाया                              मंदिर गया,तीर्थाटन किया 

अक्षत छिडके,तुलसी-दल चढाया                   ग्रंथों, मन्त्रों का पाठ किया 
बाग़ पुष्प के चुन-चुन कर                            जीवन में न अहंकार किया 
भक्ति-भाव से तुम्हे सजाया                         साधू-संतों का सत्कार किया 

श्रीफल का नैवेद्य चढ़ाया                             भजन-संकीर्तन में भाग लिया 

भांति-भांति के भोग लगाया                          सबके प्रति समभाव रखा  
घृत-बाती का दीप जलाया                            पंकों  में घिर कर भी सदा 
अष्ट-गंध का हवन किया                             कमल की तरह अलिप्त रहा 

कीरत आपकी आरती गाया                          अब शैया में पड़ा असहाय 

संध्या-वंदन, प्रभाती गाया                           उम्र और रोगों ने वार किया 
घंटी-घड़ियाल, शंख बजाया                          दाना-पानी को हुआ मोहताज                           
नाम की तेरे  जाप किया                              दुसह कष्टों ने प्रहार किया 
                       

                           सब हस कह रहे हैं बार-बार 

                           ऐसा तूने क्यों अभित्रास दिया ?
                           धर्म-परायण का यह हाल हुआ 
                           अनुत्तरित प्रश्न,प्रभु तू ही बता .
                           




रविवार, 5 अगस्त 2012

हम इस देश के किशान हैं

ठंडी में ठिठुरते हैं ग्रीष्म के तपन में तपते हैं
कीचड में ले पूरा परिवार, हम काम करते हैं
एक-दो एकड़ जमीन है,इंद्र-देव पर निर्भय है
वर्षा हुई ठीक - तो सरकार का योगदान है
वर्षा नहीं हुई तो,दाने-दाने को मोहताज हैं
भविष्य  देश के,हम इस देश के किशान हैं


दिन-रात मेहनत कर हम फसल उगाते हैं
खुद भूखे रहकर देश की भूख मिटाते हैं 
फसल लेकर जब बाजार में बेचने जाते हैं
व्यापारी सस्ते में ले,मुनाफा खूब कमाते हैं
जो मिल जाए उनसे घर का खर्च चलाते हैं 
लिया था जो कर्ज,वह मूल-ब्याज चुकाते हैं

बिटिया की शादी करना है,लड़के को पढ़ाना है 
पत्नी का इलाज कराने अस्पताल ले जाना है 
कर्ज के भार लदे जिन्दगी का ताना-बाना है 
भ्रष्टाचार में डूबी सरकार का खाली खजाना है 
माफिया भूमि लूट रहे,उन्हें कब्जा दिलवाना है 
मिली भगत सरकार का,कोइ न कोइ बहाना है 


कर्जा,अकाल का भार कृषक झेल नहीं पाता
आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प रह जाता 
ज़िंदा रह जाते जो,जीते जी है मौत ने मारा 
नारकीय जिन्दगी जी करते हैं, अपनी गुजारा 
नभ से सर्वेक्षण करना ऊँचे पद वालों का धंधा
एसी कमरे,कार में बैठकर करते हैं उनकी चिंता 


'जय-जवान,जय-किशान' का नारा लगाते हैं 
नारे और भाषणों से बेवकूफ हमें बनाते हैं 
किशानों को लूट-लूट कर घर अपना बनाते हैं 
चोरी करते ये ख़ुद, और चोर हमें बताते हैं
आज की बात नहीं करते,हमें भविष्य बताते हैं 
माटी का सौगंध खा थूक कर चट कर जाते हैं  


देश की जनसंख्या का ८०%हमारी संख्या है 
२०%लोगों के पास, देश का ८०% पैसा है 
कृषि प्रमुख व्यवसाय, कृषि-देश का दर्जा है
गरीबी में डूबा किशान,कर रहा आत्महत्या है 
समस्याएं नहीं सुनती,गूंगी-बाहरी सरकार है 
उम्मीद नहीं कोई अब,नई रौशनी की तलाश है 










        



करमा

(करमा बैगा ,गोंड जन-जातियों में प्रचलित लोक नृत्य-गीत."मादर" पखवाज जैसा मिटटी का बना वाद्य-यंत्र)  
आ रही है कर्ण-प्रिय,सुरीली आवाज 
हजारों-हजार वर्ष पूर्व निकलकर  
पाषाण गुफाओं से 
आदिम काबीले की सुर-यात्रा  यह 
--स्वतःस्फूर्त,अनवरत 

विरह,प्रणय निवेदन के गीत 
मादर की थाप और करमा के बोल 
शैला-नृत्य करते गन्धर्व 
वर्जनाओं से मुक्त,मद-लिप्त 
मंद्र,मध्य,तेज उत्स-लय अनुगुंजित हो 
प्रतिध्वनित हो रही है घाटियों में 
सुर में सुर मिला रहे हैं शिखर मानो 
सभासद सालवन कर रहे करतल 
थिरकती मंद-मंद पवन मद में हो 
सूखे पत्ते करते पद-ताल 
कभी रेखीय,कभी वर्तुल चाल 
सभापति मध्य-रात्रि-कलानिधि 
उच्चासन नभ में आभामय 
सितारे दे रहे ताल 
  

शनिवार, 4 अगस्त 2012

क्षणिका


"रक्षा-बंधन में
मायके  नहीं जायेगी"
कह,सास उठ वहां से
पैर पटकती चली गयी
कपोलों में खिच आये
दो काजल रेखाएं उसके 
केवल घूंघट ने देखा
,,फिर सहलाकर पोंछा 

बुधवार, 1 अगस्त 2012


हम भी खाते हैं,तुम भी खाओ
इस महाभोज में भूखे क्यों हो  


तुम भी कमाओ,हम भी कमायें 
मुनाफे की बात बस आम न हो 


जाल बिछाओ,मछली फसाओ 
जाल में पहले दाना लगाओ 


तुम खुश रहो, हम खुश रहें 
हंसी-खुशी से व्यवसाय करो 


हमें खाते,वो भूखा देख रहा है
जाओ घर के परदे गिराओ

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

मेरा - गाँव


ईमानदार,न्यायप्रिय.पर अल्पसंख्यक है
रमजान इस बार फिर चुनाव हार गया है

राजनीति ने गाँव को गुटों में बाँट रखा है
भाई - भाई को खिलाफ खड़ा कर दिया है

आँखों का पानी सूख गया है लोगों का
बंटवारों ने रिश्तों को बेजान कर दिया है

चिल्लू-काका,फागू-बब्बा,सीता-मौसी नहीं
अंकल-अंटी की औपचारिकता ले लिया है

चुनावों में जातीय-रिश्ते मजबूत हो गये
'सोसल-इंजीनियरिंग'ने कमाल किया है      

कुछ जातियों के रिश्ते जुड़े,कुछ दूर हुये हैं
जातीय-समीकरण काखेल अजीब हुआ है

मनुवादियों को पानी-पीकर गाली देते थे
कुर्सी के लोभ ने उन्हें फिर मिला दिया है

गाँव-गाँव नहीं रहा अब शहर हो गया है
चुनावों में मुर्गा,शराब,रुपया बँट रहा है

फाग का बुलौवा नहीं गया गाँव में इस बार
हर जातियों ने होली अलग-अलग जलाया है

बैगा-बाबा के साथ कुछ ही लोग गए हैं
हरियाली-पर्व आज,ग्राम-देव की पूजा है

दिवाली में लक्ष्मी की पूजा हुआ,फटाके फूटे
बस अपने ही अपनों को प्रसाद बांटा गया है

ग्वालों ने द्वार पर देवों  को नहीं जगाया
चुनाव ने इस बार त्यौहार भी बाँट दिया है

मंगू की जमीन शासन में निकल गयी है
सरपंच ने विरोधियों को सबक सिखाया है

विकास के मुद्दे अपना पता तलाश रहे हैं
भारी भ्रष्टाचार हुआ,विकास नही हुआ है

सरपंच के घर अब फोर-व्हील' आ गया है
'मनरेगा' ने गाँव की तस्वीर बदल दिया है

हर कोई अपना-अपना राग आलाप रहा 
ग्रामसभा में पुलिस को बुलाया गया है

भ्रष्टाचार के रुपयों के बंटवारे का असंतोष  है
'सूचना-अधिकार'का उपयोग किया जा रहा है

पी.डी.एस.में 'सेल्स-मैन'का मुनाफ़ा बढ़ा है
केरोसिन,चावल वहां के,बाजार में बिक रहा है

गत-वर्ष बना स्कूल बरसात में गिर गया है
सरपंच ने मरम्मत का नया प्रस्ताव रखा है

मेरे गाँव की कहानी.हर गाँव की कहानी है
पूरे देश की हालात आज एक सा हो गया है








संवाद-संप्रेषण

हम वहां थे ,हम वहां नहीं थे 
क्या कहा आपने,नहीं समझे 


आपने कहा,हमने सुन लिया 
आपकी कहा हम ठीक समझे 


आप चुप रहे,हम भी चुप रहे 
अनकही-कही को भी समझे 


क्या कहा,वे कुछ और समझे 
नासमझी में अपने दुखी हुये 


आप ने कहा और सुना उन्होंने 
फिरभी अनसुनी कर,चल दिये


आपने जो कहा वो समझ लिये
अर्थ का अनर्थ, फिर क्यों किये 


कहते-सुनाते समय काफी बीता 
कुछ समझे,कुछ फिर नहीं समझे 


  




सोमवार, 30 जुलाई 2012

रेवा की सखी चकरार


बजाग थाना-प्रभारी के अपने ५ वर्षीय कार्यकाल के दौरान गाडासरई लो.नि.वि.के चकरार-नदी किनारे स्थित विश्रामगृह में बहुत समय गुजारा.चकरार,म.प्र.की जीवन-दायनी नर्मदा की सहायक नदी हैजो चाडा के पहाड़ियों से निकलकर चंदन-घाट के पास नर्मदा से मिलती है.विश्व-प्रसिद्ध मानव-शास्त्री एल्विन बैरियर 
की 'द बैगा' पुस्तक के बैगा चाडा के तराइयों में निवास-रत हैं,जो आज भी आदिम-संस्कृति को धारण किये होने की वजह से पर्यटकों और सारे विश्व के मानव-शास्त्रियों के आकर्षण का केंद्र बने हैं.चकरार नदी के रूठने और जबलपुर-अमरकंटक-मार्ग अवरुद्ध करने के फोटो मेरे गाडासरई के मित्रों ने ऍफ़.बी.के माध्यम से भेजा तो मुझे अपने बीते समय की रचना याद आयी और पूरानी डायरी से ढूढ़ कर पोस्ट कर रहा हूँ -   


रेवा की सखी चकरार
'कंचन-वर्णा' ने ले लिया है 
बैगा महिलाओं से उधार 
धूमिल,मटमैली चुनरी 
बदल कर परिधान,
परिहास करती 
सखी से मिलने चली 
मुस्कुराती,हंसती,खिल-खिलाती
कभी लजाती,कभी सकुचाती 
क्षण-प्रतिक्षण भाव बदलती 


चांडा के तराइयों से कुलांचे भरती
हिचकोले खाती,अठखेलियाँ करती 
नर्तन करती ,मद से इठलाती 
सघन-साल-तरु-सज्जित तट संग 
वन-प्रांतर का भ्रमण करती 
सर्पिल-फेनिल-उर्मियाँ 
कल-कल,झर-झर नाद करतीं 
बन्ध-निर्बंध छंद रचतीं 
विहाग-दल-संग मंगल गान करतीं 


अमर-प्रेम हिय में संजोये 
आजीवन साथ का संकल्प लिये
रेवा से मिलने चकरार चली  

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

सुन्दर मुझे बनाया होगा


आड़े-तिरछे रेखाओं को
क्रम से सजाया होगा
भाव-भंगिमाओं को डाल
रेखाचित्र बनाया होगा
बना-ठना कल्पनाओं से
सुन्दर मुझे बनाया होगा


शब्द-शब्द, बिखरे-बिखरे
चिंतन कर-कर जोड़ा होगा
अलंकारों से करा श्रृंगार
सुगढ़-छंद बनाया होगा
रसमयी भावों से भरकर
सुन्दर मुझे बनाया होगा


सरगम के सप्तक से चुनकर
स्वरों को तुमने ढूढा होगा
आरोह-अवरोह भरकर
'श्रुतियों' से सजाया होगा
'राग-भैरवी' में गाकर
सुन्दर मुझे बनाया होगा


फूल प्यार के  चुनकर
सूत में एक सजाया होगा
धागे में विस्वास पिरोकर
गजरा एक बनाया होगा 
मेरे बालों में गुथकर 
सुन्दर मुझे बनाया होगा     

रविवार, 22 जुलाई 2012


हवाएं तुम क्यों मरोड़ते हो
बांह परदे का बार - बार
क्यूं धकियाते हो किवाड़े
दरवाजे के बार - बार
क्यों पैदा करते हो भ्रांतियां
किसी मेहमान के आने का
एकांत अंधेला ही सत्य मेरा
जबसे बुझा,दिया है दिल का 

शनिवार, 21 जुलाई 2012

एक यात्रा विंध्यांचल की




टीले-मैदानों के बीच 
आहार भक्षण के बाद 
उनींदा-आलसमय,टेढ़ा-मेढ़ा
पसरा हुआ 
अजगर की तरह - सड़क 
इसके ऊपर दौड़ते वाहन, आते-जाते 
कान में भिन-भिनाते 
मक्खियों की तरह
स्तब्धता को चीरते हुये
सागोन,सरई,पलास,महुआ 
नीम, आम ,बेर,हल्दू,बीजा 
के घने दारख्तों के बीच 
उग आये यूं.के. लिप्टस
आयातित विदेशी-संस्कृति का 
गंध लिए 
अस्वीकार कर दिया हो जैसे  
पूरी बिरादरी ने 
जाति में उन्हें मिलाने से 


पीछे भागते 
मील के पत्थर फासलों में खड़े 
'ट्रैफिक' के सिपाहियों की तरह 
कर्तव्य में मुस्तैद सावधान मुद्रा में 
ज्ञान कराते दिशा और मंजिल 
निरंतर यातायात के 
उपत्यका के नीचेबसे 
गाँव ठिठुर-ठिठुर से 
प्रातः-प्रातः 
आगे सिमट आया है 
आधा गाँव 
विदा देने के लिए 'लारी' में
ससुराल जाती नव-वधु को 
कपोलों में उसके लरजते अश्रु-कण 
थम गए हैं ओस के बूंदों की भांति 
कोमल पातों पर 


गोष्ठी से भागे गाय के पीछे 
भागता हुआ ग्वाला सा 
आसमान में भास्कर 
जल भरने जाती पोखरे में 
गीत गाती युवतियां गागर लिये
दूर खेतों में हल चलाते किशान 
अब दिखने लगा है चिमनियों का धुंआ 
समाप्त होते कोहरों के पार 

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

पलायन-सुख


जीवन  की एकरसता 
नासूर न बन जाय 
आभासी दुनिया में 
चलो मन बहलाया जाय .


परदे के किस्सागोई से 
अपना वास्ता जोड़ा जाय 
पात्रों के सुख-दुख को 
अपना बनाया जाय .


जीवन के संघर्षों को 
कुछ छण मन भूल जाय 
किसी बाबा से मिलकर  
शान्ति ढूढा जाय    .


क्या रखा है मंदिरों में 
मूर्तियों के शिवाय 
मधुशाला में चलकर 
सुरा-पान किया जाय .


ज्योति-पथ से हटकर 
अन्धेले के सन्नाटों में 
कहीं एकांत ढूढकर 
किसी पत्थर में बैठा जाय .

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

ओलों की मार


ओलों की मार 
तरुणाई में आगया पतझर 
मसल दिया है फूलों को 
लगने से पहले फल 
चना के 

खड़े हैं -
बाली-विहीन-तने गेहूं के 
खेतों में     
रिपु-दल ने किया हो नरसंहार  
शिर-विहीन धड जैसे 

जैसे बदहवसियों ने 
किया हो नोच-खसोट  
अल्प-वय किशोरियों के साथ 
खो होशो-हवास भागीं छोड़ 
चुनरियाँ-हरिताभ 
तर-बतर फ़ैली पड़ी
मैदानों पर 
बिखरे पड़े राहर की -
पत्तियां,शाखाएं,अधपके फल 

रो रहा दुःख-विह्वल किशान 
खोकर सर्वस्व हैरान 
खा-खा कर पछाड़
दिलाशा की आशा नहीं 
सहायता की कोइ उम्मीद नहीं 
नियमों की तलवार खींचता 
पत्थर है प्रशासन 
किशन का भाग्य भी है इस देश की तरह 

इस वर्ष न आयेंगे फल 
आम्रतरुओं में 
न फूलेंगे पलास,सेमल,कचनार 
ऋतुराज की सूनी रहेगी दरबार         

बुधवार, 18 जुलाई 2012

मेरा घर


पूरे कुनबे को साथ लेकर
कमर-तोड़ परिश्रम कर
पत्थर एकत्रित किया बहुत सारे
ढेर से बहुत छोड़े,चुने कुछ
उनमें तराशे बहुत सारे
खड़ा किया तब खुद का  
अपने परिवार के श्रम के पसीना से
बनाया एक एक दीवार ,छत,खिड़की दरवाजे
फिर बना मकान' मेरा
 बचाता है-
ठण्ड,धूप,और बरसात से  
देता है सुरक्षा हर आपदाओं से 
प्यार,सहयोग,सामंजस्य और सुरक्षा का
निःशुल्क बीमा है मेरा घर
खालिश दीवार और छत नहीं      
तमाम यादगार पलों का एल्बम है
सभी रिश्तों का,संयोग वियोग,खुशियों का
कही भी रहूं जो मेरे साथ रहती है
कही भी कितने भी दिन बाहर रहूं 
लौटकर घर आता हूं, 
जीवन संघर्ष से,शुकून यही मिलता है
क्योंकि मिट्टी में और हवाओं में यहां गंध है 
मेरी मां के शीतल आंचल के छांव का
देते हैं पहरे यहां सितारे बन मेरे माता पिता
स्वर्ग से भी प्यारा मेंरा घर है
मौत आए तो बस यही इच्छा है
आगोश में अपने घर के मरूं 
जहा भी हुं लौटकर घर आ जाऊं।

मई की एक रात


रात्रि का चौथा पहर
'मावस की
पौढ़ा हुआ है
सन्नाटे की गोद में
 सारा गाँव डूबा तिमिर जाल में

अचानक प्राची से
तेज हवा के झोकों का आगमन
इन्द्रदूतों का आकाश में रस-कस
धूल का गुबार लिए साथ
सीटी  बजाता
 चक्रवात

कुत्तों का करुण विलाप
घब्र्राए मवेशी भागे
बंधन तोड़
दुबक गए हैं झोपड़ों में
आँगन-फरके में सोते लोग
कांप रही है सारी झोपड़ी
किशान की तरह
सुनकर नीलामी की डुग्गी

बाहर मेमने के मिमियाने की आवाज
भीतर माँ के स्तन से चिपके
आबोध-बालक का कुनमुनाहट
ओह!कब बीतेगी
कसमसाहट भरी यह रात
भारी,एक युग की तरह !      

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

स्तब्धता के राज्य में


निर्जन वन-प्रांतर 
अगल-बगल खड़े -शांत,मूक प्रहरी से 
कतार-बद्ध- वृक्ष 
संसृत-सृजित
 झुकी हुयी प्रफुल्ल बल्लियों के मेहराब 
बीच से निकलती 
अंतहीन वीथिकाओं की जाल 
शांति की सजीव मूर्ति
स्फूर्तिमय मारुत
और दम तोड़ती अलकस
झूमते शाख 
निस्तब्धता का राज्य 
हर क्षण साधना में रत -चुपचाप!
मित्रो खामोश होकर आओ 
कहीं टूट न जय ध्यान 
साधना में रत ऋषि -मुनियों का 
वेद-ऋचाओं की
 भूल न जायें कड़ियाँ- 
गाते विहग-दल
धीरे-धीरे आओ सरिता किनारे तक 
शुभ्र-धवल-नभ 
फैला है पैर पसारे
जल में विश्रांत 
सामने उपत्यका में 
मृग-शावक निर्भय भर रहे कुलांचे   
 आओ!उस पार जाने के लिये नौका ढूढें .       

सोमवार, 16 जुलाई 2012


पिय ने दस्तक दिया व्दार ,मानसून की तरह
मन में छाई हरियाली , पेड़- पौधों की तरह

बहुत दिनों बाद उबटन लगाया,स्नान किया
गात महका मिट्टी की सोंधी खुशबू की तरह

हवा के झोंके साथ में ,बारिश के बौछार लाये 
तन- मन भीगा एक बार फिर,धरती की तरह

नभ में घुमड़-घुमड़ घन गरजे,दामिनी-दमके
उमगा मन,आशा- अंकुरे नव-बीजों की तरह

बूढ़े-पातों ने गिरकर,ऋण चुकाया वसुधा का
नव-वस्त्र पहना,कोमल,शादाब पत्रों की तरह

फूल खिले रंगे-बिरंगे,चतुर्दिक हुआ सुवासित
प्यार ने किया श्रंगार आज , धरती की तरह

व्योम में खीचा वितान छोरों पर इंद्र-चाप का
मिलन होगा प्रियतम से वहाँ, मीरा की तरह



रविवार, 15 जुलाई 2012

नि:शेष




स्वासों का तूफ़ान
सूने आकाश में मनके
विगत दौड़ने लगा चलचित्र कि तरह
घिर आये बादल घुमड़-घुमड़ कर
टहनी से टूटे सूखे पत्तों का
ऊँचा बवंडर
अनियंत्रित भावनाओं का
बाँध आखिर टूट गया
बगार में पानी फ़ैल गया
ढाल से फिसलकर
बूँद-बूँद टपक गया
वर्षों से प्यासी धरती सूख गयी
 नि:शेष रहा पास-
रोटी हुई रात ,
बिखरी हुई चांदनी ,
घर के उदास आंगन में -
एक मुरझाई तुलसी ,

प्याले में तूफान


कई रंग भरे थे आदर्शों के मन में 
रंग कला चढ़ा बाकी बेअसर रहे


बाहर झांकने की हिम्मत न हुई
प्याले में आते रहे तूफ़ान कितने 


ढूढता रहा अर्थ जिंदगी का तमाम ऊम्र
गुजरते रहे मील के पत्थर कितने   


तपता रहा आग में अन्दर ही अन्दर 
हाँथ सेकने को राहगीर तमाम मिले 



देखते रहे बस सपने सुनहरे    

एक है रचनाकार


पर्वत , झरना ,नदियाँ 
वृक्ष , जंगल ,चिड़ियाँ 
पवन, मिटटी, गगन 
वारि,  मेघ,   जीवन .




अस्थि, रक्त , त्वचा 
खान - पान ,  भाषा 
रहन - सहन,आचार 
जीवन-दर्शन,विचार 




एक - एक - एक 
एक   से     अनेक 
सूरज -  चाँद, तारे 
साँझ - भोर  न्यारे .




आते सबके  आँगन 
निर्बल,निर्धन,हरिजन 
वर्षा , प्रकाश, चाँदनी
नहीं किसी के अनुचर.




कैसा यह भेद-भाव 
खेल यह धूप- छाँव 
मानव का मानव से 
कैसा यह विलगाव ?




कौन ऊंचा-कौन नीचा 
कौन गोरा-कौन काला
जाति, वर्ण, धर्म  के 
बनाया  भेद  हमने .




सातरंग इन्द्रधनुष के 
पुष्प-दल   रंगे-बिरंगे 
सबका एक रचनाकार 
भिन्न रूप,गंध,आकर .   

आत्महत्या




बरगद के नीचे चारपाई पर
अलसाया बैठा मैं


आस-पास बैठे लोग
कुछ बतियाते धीरे-धीरे .
कुछ चुप -चाप
उनींदे से निहारते उदास


आसमान में खंड-खंड बादल
मंडराते गिद्ध ऊंचाइयों पर


फरके में दरवाजे के पास
बैठी क्रंदन करती
गाँव की महिलाएं
टुक-टुक देखते कुत्ते खड़े चुप-चाप


सिमट आया है सारा गाँव
बच्चे कुछ खड़े ,कुछ बैठे
शांत बूढ़ों से
निहारते कातर  


कृष्णा लुहार ने आज रात 
अपने घर के दोगई में 
कर लिया है 'आत्महत्या' 
फांसी लगाकर 
पांच पंचों के सामने मैंने/ पूंछा उसकी पत्नी से / पति के आत्महत्या का कारण / बोझ था कर्जे का, सुबकते हुए बताया / दिन भर मजदूरी करता था / उसमे गुजारा नहीं होता था / बिटिया जवान थी,विवाह करना था / थोड़ी सी जमीन थी, बरसात नही हुई / बीज भी घर नहीं आया / मेरे पेट में दर्द उठता था / डाक्टर ने आपरेशन के लिए बोला था / इन तमाम चिंताओं से परेशान था / रात भर नही सोता था/ परेशानियों में छोड़कर अकेला / मुझे चला गया।/

आँगन




हे चौरस- समतल !
तुम कैद हो सदियों से
ऊँचे दीवारों के बीच
केवल ताक सकते हो
छोटे से आसमान को,
ताप सकते हो
खड़ी दोपहर की धूप
बरसात भी नहीं लाती हरियाली
देती नहीं अंकुरण तुम्हारे जीवन को
छीन लेती हैं दीवारों की सायाएं
चाँदनी की शीतलता भी
हे भूखंड ! तुम गवाह हो-
मानव इतिहास के ,
 जन्म- मृत्यु,उत्कर्ष-अपकर्ष के
बने राम और कृष्ण
तुम्हारे रज-कणों में सनकर
छू रहा मानव आज
गगन के सितारों को
तुम्हारे वात्सल्ययुक्त        
आँचल में पल- बढ़ कर .  

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

प्रेम,दया, त्याग,भाईचारा का बुतों से संस्कार ही ले लें  
बुत-परस्ती की जबरदस्ती नहीं,मत मानिये ईश्वर इन्हें  
संकल्प अमूर्त होते हैं मन में,साकार होने पर मूर्त होते 
सच्चाई को दूर न करें अपने से,आँख के पास ही रहने दें.

बुधवार, 11 जुलाई 2012

बेजुबान भी बोलते हैं

दरवाजे का पट बंद,सांकल लगा था 
बेजुबान भी बोलते हैं  कभी - कभी 


देहरी पर बैठी चावल बीन रही थी 
पथ से निकलते रहे कितने-अज़नबी  


आँखें हमारी बह-बह कर पथरा गयीं 
सुर्ख हो पिघला पत्थर,वह बेजान रही 


कुछ देर,दूर- दूज का चाँद,साथ रहा 
छत पर टहलते बेचैनी से रात गुजारी 


अल्लाह!दिल दे लेकिन संग-दिल नहीं 
शीशे की तरह वो हसरतें तोड़ती रही 




मौसम बदल जाता है मिजाज की तरह 
कभी धूप कभी बरसात नज़र आता है 

ऊफ़ानों में तैरती कश्तियों का भाग्य 
ऐ खुदा ! तूने रेत पर लिखा रक्खा है  

रहम कर इन खौफ़नाक मंजरों से 
तू है बनाने वाला,तू ही मिटा रहा है 

रेत पर बने इन हवेलियों की कीमत  
सबको पता,पर नहीं किसी को पता है  

पत्तियों पर शबनमी-कण है ये जीवन 
अभी आये थे और अभी चले जाना है .

सोमवार, 9 जुलाई 2012

सोचा था कुछ,और कुछ हो गया
कोई बात नहीं- आगे फिर कभी !

सपने देखना बुरा तो नहीं है
साकार नहीं हुए तो - न सही  

चलकर  चाँद में सीढ़ी लगाते हैं
हौसले ऊंचे हैं,देर किस बात की

दिन में तारे देखने की बात कह
न जाने क्यों ? हँस पड़े सभी

वक्त की बात,वक्त नहीं सुनता
वक्त सुनेगा - भले अभी नहीं

अमावस की रात सूरज उग आया 
वक्त पलटा खाया,भाग्य ही सही


कौन कहता है सितारे दूर हमसे 
ख्वाहिश तो पालो,उन्हें पाने की


रविवार, 8 जुलाई 2012

अनमना शुबह !


चितकबरे पंख फैलाये
आसमान में
भर आये
टुकड़े-टुकड़े बादल
गहराते
गौरैया चह-चहाती हैं
शुबह -शुबह
उदास गत सा -वीणा तंत्री का
बतियाती


गृह त्याग काम की खोज में जातीं
आशंकाग्रस्त
मजदूर महिलाओं सी .




लाल गेंद को 'किक' लगा 
पहुंचा देता
चंचल छोकरा क्षितिज !
नीले पहाड़ के नीचे 
किसी अंधकारमय गह्वर में 
ताकता रह जाता अनिमेष 
गोली प्राची,




आज का मेरा अनमना शुबह  .

पावस-ऋतु


रिम-रिम-झिम!रिम-झम!छम-छम!छम-छम! 
पवन पुरवाई गीत सुनाये
वर्षा ले कन्धों पर आयी
ग्रीष्म-ऋतु की तपन बुझाई
वन-उपवन हरियाली छायी
घर-आँगन बजे शहनाई
नभ मेघ-मल्हार सुनाये
पपीहा और दादुर हर्षाये
मयूरा नाचे मस्ती-मस्ती
छायी खुशियाँ बस्ती-बस्ती








हर-नागर अंतरी-कोतरी
उठा किशान बोनी-बखरी
कलेवा ले चली सजनी
बन-ठन अलबेली,सुघड़-सलोनी
छन-छन!छन-छन!
रुन -झुन! रुन-झुन!
कदम-कदम नूपुर बजती
टन-टन!टन-टन!बजती
बैलों के गले में बंधी घंटी
गौरी,कोशी,भूरी चरती
तट पर ग्वाल बजाता बंसी
झर-झर !झर-झर!झरना झरते
उफ़न-उफ़न नाले बहते
कोयल कूक रही फुलवारी
चिड़ियाँ चहक-चहक कर गातीं




तितलियाँ घूमे रंग-बिरंगी
नीली-पीली ,लाल,गुलाबी
बगुले बैठे आंती-पांती
मेढ़ों की करें रखवाली 
मछली रानी बड़ी सायानी
संतों की चोला पहचानी
हाट-बाजार ज्यों छैले घूमें
फूल-फूल भौरे गुन्जारें
इन्द्र-धनुष छटा बिखराये
पावस प्रणय-प्यास बुझाये.

शनिवार, 7 जुलाई 2012

हसरतें दिल की उड़ रही हैं हवा में ऐसे
अंगार दबे राख में यूँ पानी किसी ने डाला

रात भर साथ देने का वादा था समां का
न जाने हवा के झोकों ने कब बुझा दिया

काल-चक्र ने जब भीषण ज्वाला उगला
सबसे पहले आंसुओं ने घर अपना छोड़ा

चौखटों की हद पार कर आंसू  निकले
परदेश से लौटकर बेटा अपने घर आया

होंठ कापें,तन थर-थाराया,पलकें अपलक
आंसुओं ने बाहर आने का रास्ता न पाया

कम्पित तन रोम-रोम में कैक्टस उग आये
अजीब मिलन थी,चुभन में भी आनंद आया



 

      

फागुनी-एहसास

फागुन का एहसास हुआ आज
झुक गयी डाल
कचनार के
हजारों -हजार  फूल के बोझ से
मन-मदालस

आये फगुहार
मेरे आँगन
भंग के तरंग के साथ
फागुनी- पवन गाने फाग
फूल रहे हैं टेसू कपोलों पर
उमंगों की-रंगों की 
भरकर लायी भगोने
सज-धज कर आयी
खेलने होली
कोमलांगी धूप सालज्ज
आज  की सुबह
मेरे छत पर
नृत्य करते उमग-उमग कर
पीले पत्तों के बगूले
मसल डाला है नरम-नरम दूबों को
गुलाबी गुलाल के रज-कणों से

लाल रंग से सराबोर खड़ा है
गंजा बौराया सेमल
कर-तल कर उछल-उछल 
करतीं ठिठोलियाँ
छतनार महावट-पत्र,पीपल

भेद-भाव,बंधनों से परे
इन्द्रधनुषी रंगों का
यह सतरंगी एहसास
लेकर आया है मधुमास .
       


'बांधवगढ़ रास्ट्रीय उद्यान'में लगभग तीन वर्षों तक थाना प्रभारी रहा.वहां वन्य जीवन को बहुत नजदीक से देखने का अवसर प्राप्त हुआ. भ्रमण के दौरान मन में आये वन्य-प्राणियों के स्वाभाव एवं जीवन-शैली के कुछ प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता हूँ.लाक्षणिकता एवं मानवीयकरण के दोष से बच नहीं पाया हूँ,लेकिन यही काव्य-बोध का सौंदर्य है.

मांद से निकल जब वनराज बहार आया
खग-मृग,वानरों  ने  खूब शोर मचाया                                                                                                 
हाथी चिंघाड़े तो बाघ भी पीछे हटता था
मरने पर उसके श्वानों ने दावत खूब उडाया             

अनजाने मृग मस्ती में कुलांचे भर रहे  
झाड़ी में छुपा है मृगराज घात लगाया

दिन बीता रात ढली कुछ हाथ न आया
बगुला की चालें,एक भी काम न आया

सतरंगी पंख फैलाये मोर मस्त नाच रहा
ये आवारापन मोरनियों को रास न आया

नभ में उड़ते गिद्ध धरा में नजर गड़ाये
सड़े-गले,जूठन पर ही आत्म-सुख पाया

तेजी,फुर्ती,चौकन्नापन ही जान बचाएगी
अरि,मित्रों ने एक ही ठांव पड़ाव जमाया.

रविवार, 1 जुलाई 2012

नियति

खन- खनाती चूड़ियों सी 
तोड़ती सन्नाटा माहौल की 
सैलाब बनकर 
तुम्हारी हंसी 


एक तरासे हुये बुत की तरह 
मुस्कुराहट अधरों पर मेरे 
तुम्हारा साथ देतीं 
आती किसी 
घुप- अंधियारे- गहवर से 
हटाती विशाल शिला को 
शंकित,संकुचित, बालात
भाव -पढ़ती
अर्थ ढूढती चौकन्नी 
असभ्य कहलाये जाने के भय से 

मजबूर करता है विगत 
यथार्थ, ढोंग को 
क्षण-प्रतिक्षण बदलता 
तुम्हारा स्वर 
तुम्हारा उन्माद अतिरंजित 
बहा न ले जाय कहीं 
 रेत में बने मेरे घरौंदे को .    
     

कवि सा मन

मेरे आँगन में जब कभी भी
उदासी आती है
बेला का गंध लेकर
और चांदनी रात में
हवा के कन्धों में सवार होकर
आते हैं रुआं-रुआं से बदल
फूट पड़ती हैं जैसे-
जटा से शिव की
सहस्त्र धारायें
मेरा कवि सा मन
पिघलने लगता है
हिमगिर के हिम सा
द्रवीभूत हो छन्द-बद्ध
भागीरथी के दो तटों के  
तरल अनुबंद्ध सा.
     

भाइयो माफ करना यदि बुरा लगे 
खरी बात करने की आदत पुरानी है 


कबीरा तो नहीं हूँ न ही बनना है 
आदर्श मेरा कबीर की जुबानी है 


मैं घर फूकने की बात नहीं करता 
व्यवस्था बदलने का सूत्र क़ुरबानी है 


राहगीर ठगे जाते हैं हर-बार क्यों 
जाति,धर्म सब बाटने की कहानी है


आश्वासन फूलते हैं,घोषनाएं पकती हैं
ऐ खोखले पेड़ो काफी एक चिनगारी है


यह बाग़ हमारी जागीर है पुस्तैनी
पीढ़ियों ने गाढे रक्त से की सिंचाई है


खोखले वृक्षों में बसेरा नहीं बनाना
पक्षियों,आंधियाँ इन्हीको गिरती हैं

वक्त



शुभ्र  धवल झीनी चादर
चांदनी बिछी अवनि-अम्बर  
मस्ती से सराबोर
फागुनी पवन आरपार 
करवट बदलती परछाइयाँ
डोलते ऊंचे नीलगिरि
ऊंघते सागोन
सर-सरती गुजरती
बीच से एक छाया
चंचल, शोख, हसीना
संगमर-मरी तन
सुरभित बदन
छलकती तरुणाई पोर-पोर
सलाखदार खिड़की और मै-
निर्निमेष! बेबस!!
कैद न किये जा सकने वाले क्षण 

Free Domain Name Registration5UNN'/