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बुधवार, 11 जुलाई 2012

बेजुबान भी बोलते हैं

दरवाजे का पट बंद,सांकल लगा था 
बेजुबान भी बोलते हैं  कभी - कभी 


देहरी पर बैठी चावल बीन रही थी 
पथ से निकलते रहे कितने-अज़नबी  


आँखें हमारी बह-बह कर पथरा गयीं 
सुर्ख हो पिघला पत्थर,वह बेजान रही 


कुछ देर,दूर- दूज का चाँद,साथ रहा 
छत पर टहलते बेचैनी से रात गुजारी 


अल्लाह!दिल दे लेकिन संग-दिल नहीं 
शीशे की तरह वो हसरतें तोड़ती रही 




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