दरवाजे का पट बंद,सांकल लगा था
बेजुबान भी बोलते हैं कभी - कभी
देहरी पर बैठी चावल बीन रही थी
पथ से निकलते रहे कितने-अज़नबी
आँखें हमारी बह-बह कर पथरा गयीं
सुर्ख हो पिघला पत्थर,वह बेजान रही
कुछ देर,दूर- दूज का चाँद,साथ रहा
छत पर टहलते बेचैनी से रात गुजारी
अल्लाह!दिल दे लेकिन संग-दिल नहीं
शीशे की तरह वो हसरतें तोड़ती रही
बेजुबान भी बोलते हैं कभी - कभी
देहरी पर बैठी चावल बीन रही थी
पथ से निकलते रहे कितने-अज़नबी
आँखें हमारी बह-बह कर पथरा गयीं
सुर्ख हो पिघला पत्थर,वह बेजान रही
कुछ देर,दूर- दूज का चाँद,साथ रहा
छत पर टहलते बेचैनी से रात गुजारी
अल्लाह!दिल दे लेकिन संग-दिल नहीं
शीशे की तरह वो हसरतें तोड़ती रही
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