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मंगलवार, 14 अगस्त 2012

लहरें

लहरों की अजब चालें है उलटी 
पास आती चीजों को दूर फेकती 

भूमि को थप-थापाती हैं प्यार से 
धीरे-धीरे आगोश में है भर लेतीं 

ले लेतीं हैं रंग धरती का उससे 
फिरकी ले-लेकर हैं नृत्य करती 

कतरा-कतरा गिर-गिरकर बूँदें 
लहर बनकर फिर कहर हैं करतीं 

रोम-रोम भिगो,स्वर्गीय सुख देतीं
ग्रीष्म तपी भूमि को हैं तृप्त करतीं 

दे धरती को हरियाली,वापस जातीं 
तटबंधों में जा आराम है फरमाती    

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