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रविवार, 1 जुलाई 2012

कवि सा मन

मेरे आँगन में जब कभी भी
उदासी आती है
बेला का गंध लेकर
और चांदनी रात में
हवा के कन्धों में सवार होकर
आते हैं रुआं-रुआं से बदल
फूट पड़ती हैं जैसे-
जटा से शिव की
सहस्त्र धारायें
मेरा कवि सा मन
पिघलने लगता है
हिमगिर के हिम सा
द्रवीभूत हो छन्द-बद्ध
भागीरथी के दो तटों के  
तरल अनुबंद्ध सा.
     

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