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शनिवार, 7 जुलाई 2012

'बांधवगढ़ रास्ट्रीय उद्यान'में लगभग तीन वर्षों तक थाना प्रभारी रहा.वहां वन्य जीवन को बहुत नजदीक से देखने का अवसर प्राप्त हुआ. भ्रमण के दौरान मन में आये वन्य-प्राणियों के स्वाभाव एवं जीवन-शैली के कुछ प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता हूँ.लाक्षणिकता एवं मानवीयकरण के दोष से बच नहीं पाया हूँ,लेकिन यही काव्य-बोध का सौंदर्य है.

मांद से निकल जब वनराज बहार आया
खग-मृग,वानरों  ने  खूब शोर मचाया                                                                                                 
हाथी चिंघाड़े तो बाघ भी पीछे हटता था
मरने पर उसके श्वानों ने दावत खूब उडाया             

अनजाने मृग मस्ती में कुलांचे भर रहे  
झाड़ी में छुपा है मृगराज घात लगाया

दिन बीता रात ढली कुछ हाथ न आया
बगुला की चालें,एक भी काम न आया

सतरंगी पंख फैलाये मोर मस्त नाच रहा
ये आवारापन मोरनियों को रास न आया

नभ में उड़ते गिद्ध धरा में नजर गड़ाये
सड़े-गले,जूठन पर ही आत्म-सुख पाया

तेजी,फुर्ती,चौकन्नापन ही जान बचाएगी
अरि,मित्रों ने एक ही ठांव पड़ाव जमाया.

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