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रविवार, 1 जुलाई 2012

नियति

खन- खनाती चूड़ियों सी 
तोड़ती सन्नाटा माहौल की 
सैलाब बनकर 
तुम्हारी हंसी 


एक तरासे हुये बुत की तरह 
मुस्कुराहट अधरों पर मेरे 
तुम्हारा साथ देतीं 
आती किसी 
घुप- अंधियारे- गहवर से 
हटाती विशाल शिला को 
शंकित,संकुचित, बालात
भाव -पढ़ती
अर्थ ढूढती चौकन्नी 
असभ्य कहलाये जाने के भय से 

मजबूर करता है विगत 
यथार्थ, ढोंग को 
क्षण-प्रतिक्षण बदलता 
तुम्हारा स्वर 
तुम्हारा उन्माद अतिरंजित 
बहा न ले जाय कहीं 
 रेत में बने मेरे घरौंदे को .    
     

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