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गुरुवार, 16 अगस्त 2012

मेरा देश प्यारा

चंदन सी खुशबू माटी का गंध हो
फूलों से महकता हवा में  गंध हो
देश मेरा प्यारा विश्व का सिरमौर हो
नभ में चमकता सूरज सा प्रचंड हो . 

नदियाँ जहां जीवन का राग गाती हों
चिड़िया चह-चहाती प्यार का मन्त्र हो
युवाओं में तैरता सागर सा तरंग हो
जन-जन में भरा स्वर्ग सा उमंग हो . 

तीन छोरों से घिर रक्षा जलधि करे
सीमा में खड़ा प्रहरी हिम उत्तुंग हो
सभ्यता की तितलियों सा रंग हो
वीरों की धरा यह फहरता तिरंग हो

मंदिर,मस्जिद,चर्च,गुरुद्वारे यहाँ
ईद में मिलन व होली का रंग हो
गुरुग्रंथ,गीता,बाइबिल,कुरआन में
सत्य,प्रेम,अहिंसा का अनुगूँज हो  . 

अहोक,अकबर सा गांधी महान हों
शहीदों के रक्त से जिसका श्रृंगार हो
नानक,कबीर,रैदास जैसे संत हों
चैतन्य महाप्रभु और विवेकानंद हों  . 

गंगा,यमुना,सतलुज,सिन्धु,ताप्ती 
गोदावरी,कावेरी की कथा अनंत हो 
फसलें लह-लहाती धरती हरी-भरी हो 
पल्लवित संस्कृति युगों से सिंचित हो .

रोग, भय, भूख, कुपोषण, गरीबी 
महगाई की मार का न आतंक हो 
शिक्षित हों बच्चे,मुख में मुस्कान हो 
रामराज्य का साकार संकल्प हो 



मंगलवार, 14 अगस्त 2012

लहरें

लहरों की अजब चालें है उलटी 
पास आती चीजों को दूर फेकती 

भूमि को थप-थापाती हैं प्यार से 
धीरे-धीरे आगोश में है भर लेतीं 

ले लेतीं हैं रंग धरती का उससे 
फिरकी ले-लेकर हैं नृत्य करती 

कतरा-कतरा गिर-गिरकर बूँदें 
लहर बनकर फिर कहर हैं करतीं 

रोम-रोम भिगो,स्वर्गीय सुख देतीं
ग्रीष्म तपी भूमि को हैं तृप्त करतीं 

दे धरती को हरियाली,वापस जातीं 
तटबंधों में जा आराम है फरमाती    

आइना हर युग का सच तेरे पास रखा है
साहित्य,कला, संस्कृति में सजा रखा है

आइना बयान करता है सच रौशनी का 
अन्धेले का सच नहीं कहता,चुप रहता है 

मेरी आँखे मुझे नहीं देख पाती,फिरभी 
आइना मेरा सच-सच बयान करता है 

छोटी-बड़ी,आड़ी-तिरछी,ऊँच-नीच हर
परिस्थितियों का ज्ञान आइना रखता है 

अवतल,उत्तल,कई प्रकार आइना का 
आकार के पहले उसका प्रकार देखना है 

गत-आगत का एहसास कराता आइना  
कभी झूठ-सच,कभी भ्रम पैदा करता है 

उलझ जाता है मन देख श्वेत केशों को  
ऐ आइना!तू रंगों का सच, पाता कहाँ है 

आइना तू सच बोलता है तो बता सच 
आज तो मैंने बालों में रंग करा रखा है 

हर एक चेहरा आइना है,प्रतिबिम्ब भी 
आइना,आईने में अपनी अक्स ढूढ़ता है 


सोमवार, 13 अगस्त 2012

खंटियों में टंगा सच


थके-हारे
शाम को 
पिताजी घर लौटे 
अदालत से
छड़ी कोने में रखा
झोला और कुर्ता
खंटियों में टाँगे
एक गिलास पानी ले
माँ आगे आयीं
पूछा उनसे "क्या हुआ ?"
हतास स्वर में पिताजी बोले
उँगलियों से इंगित कर,"देख !
खंटियों में लटक रहा'सच'
कुर्ता और झोले की तरह
वर्तमान में चल रहा बस
'फरेब!"

रविवार, 12 अगस्त 2012

कहाँ सुदर्शन-चक्र है ?

मगर आ गया है ले परिवार अपना 
पूरे तालाब को जागीर बना लिया 
सफाचट करते जा रहे हैं जीवों को 
आकार बढ़ता जा रहा है उनका 
भाग रहे हैं जलचर विकल इधर-उधर 
न्यायान्याय,झूठ-सच नहीं है मुद्दा 
थलचर-नभचर पानी नहीं पी सकते 
बना लेते हैं ग्रास मगरमच्छ अपना 
मगर ने पकड़ लिया पाँव गजराज का 
गज कर रहा आरत पुकार है प्रभु का 
क्यों कर रहे देर विनाशय च दुष्कृतः  ? 
चक्रधर!कहाँ है सुदर्शन चक्र आपका ? 

(साथियो !भ्रटाचार ही वह मगरमच्छ है जिससे पूरा देश त्रस्त है )          

शब्दों का वजन

पानी की लकीर 
पत्थर की लकीर 
मूल्यहीन-शब्द 
मूल्यवान-शब्द 
बात हवा की, बात हवा में 
बात हथौड़े सा,प्रहार चट्टान में 
सौ घाव सुनार का 
एक घाव लुहार का 
शब्द,घिसे सिक्के 
फिसल गए हाथ से 
शब्द,पाँव से 
काई जमे चट्टान में 
शब्द,शिलालेख अमिट 
प्रतिध्वनित हो रहे हजारों वर्षों से 
इतिहास के परतदार पन्नों में 
ये मूल्यहीन शब्द !
वो मूल्यवान शब्द !!

यात्रा मूलाधार से


सरोवर के तलछट में 
जमे पंक में 
पैदा हो 
बाहर निकला गहरे जल से 
सुरत -निरत का नाल ,
खिला सहस्त्र-दल ,उस पर अलिप्त
निरखें हंस
सहस्त्र चन्द्र
निरभ्र-नभ में गुंजित
अनहदनाद !

शनिवार, 11 अगस्त 2012

झोंकों में पुष्प-पंखुड़ी बिखरती रहीं 
जीवन अपनी बेबसियाँ कहती रहीं 

सारी रात फूल बारिश में भीगते रहे 
शुबह की  धूप में आँखें जलती रही  

उठो भी अब चलने का वक्त आया 
भोर की हवाये कान में फुसफुसा रहीं 

बौछारों में तितलियाँ भटकती रहीं 
छुपने का  ठिकाना तलाशती रहीं 

खोने के लिए अब कुछ पास न रहा 
एक मकान था,बारिश गिरा गयी 

अँधेरे में जुगनू टहलते रहे हवा में 
नाकामियाँ कहानियां कहती रहीं 

मंगलवार, 7 अगस्त 2012



 मिजाज की तरह मौसम बदल जाता है
कभी धूप कभी बरसात नज़र आता है 

ऊफ़ानों में तैरती कश्तियों का भाग्य 
ऐ खुदा ! तूने रेत पर लिखा रक्खा है  

रहम कर इन खौफ़नाक मंजरों से 
तू है बनाने वाला,तू ही मिटा रहा है 

रेत पर बने इन हवेलियों की कीमत  
सबको पता,पर नहीं किसी को पता है  

पत्तियों पर शबनमी मोती है जीवन 
अभी आये थे और अभी चले जाना है .

प्रभु के नाम भक्त की पाती

मेरी 87 वर्षीय माँ लकवा-ग्रस्त होकर बिस्तर में पड़ी हैं .प्रभु के नाम यह पाती, मैं उनकी तरफ सेलिख रहा हूँ .

                                                              
द्वार में वन्दनवार सजाया                           उपवास रखा धर्म-पथ पर चला 
करा जल प्रक्षालन,वस्त्र पहनाया                   दान किया,जीवों पर दया किया 
चन्दन घिस तिलक लगाया                         आठो-याम तेरा ध्यान किया 
केशर और सुगंधि  लगाया .                         अनजाने में ही कोई पाप किया 

दूर्वा-दल,बेल-पत्र चढ़ाया                              मंदिर गया,तीर्थाटन किया 

अक्षत छिडके,तुलसी-दल चढाया                   ग्रंथों, मन्त्रों का पाठ किया 
बाग़ पुष्प के चुन-चुन कर                            जीवन में न अहंकार किया 
भक्ति-भाव से तुम्हे सजाया                         साधू-संतों का सत्कार किया 

श्रीफल का नैवेद्य चढ़ाया                             भजन-संकीर्तन में भाग लिया 

भांति-भांति के भोग लगाया                          सबके प्रति समभाव रखा  
घृत-बाती का दीप जलाया                            पंकों  में घिर कर भी सदा 
अष्ट-गंध का हवन किया                             कमल की तरह अलिप्त रहा 

कीरत आपकी आरती गाया                          अब शैया में पड़ा असहाय 

संध्या-वंदन, प्रभाती गाया                           उम्र और रोगों ने वार किया 
घंटी-घड़ियाल, शंख बजाया                          दाना-पानी को हुआ मोहताज                           
नाम की तेरे  जाप किया                              दुसह कष्टों ने प्रहार किया 
                       

                           सब हस कह रहे हैं बार-बार 

                           ऐसा तूने क्यों अभित्रास दिया ?
                           धर्म-परायण का यह हाल हुआ 
                           अनुत्तरित प्रश्न,प्रभु तू ही बता .
                           




रविवार, 5 अगस्त 2012

हम इस देश के किशान हैं

ठंडी में ठिठुरते हैं ग्रीष्म के तपन में तपते हैं
कीचड में ले पूरा परिवार, हम काम करते हैं
एक-दो एकड़ जमीन है,इंद्र-देव पर निर्भय है
वर्षा हुई ठीक - तो सरकार का योगदान है
वर्षा नहीं हुई तो,दाने-दाने को मोहताज हैं
भविष्य  देश के,हम इस देश के किशान हैं


दिन-रात मेहनत कर हम फसल उगाते हैं
खुद भूखे रहकर देश की भूख मिटाते हैं 
फसल लेकर जब बाजार में बेचने जाते हैं
व्यापारी सस्ते में ले,मुनाफा खूब कमाते हैं
जो मिल जाए उनसे घर का खर्च चलाते हैं 
लिया था जो कर्ज,वह मूल-ब्याज चुकाते हैं

बिटिया की शादी करना है,लड़के को पढ़ाना है 
पत्नी का इलाज कराने अस्पताल ले जाना है 
कर्ज के भार लदे जिन्दगी का ताना-बाना है 
भ्रष्टाचार में डूबी सरकार का खाली खजाना है 
माफिया भूमि लूट रहे,उन्हें कब्जा दिलवाना है 
मिली भगत सरकार का,कोइ न कोइ बहाना है 


कर्जा,अकाल का भार कृषक झेल नहीं पाता
आत्महत्या ही एकमात्र विकल्प रह जाता 
ज़िंदा रह जाते जो,जीते जी है मौत ने मारा 
नारकीय जिन्दगी जी करते हैं, अपनी गुजारा 
नभ से सर्वेक्षण करना ऊँचे पद वालों का धंधा
एसी कमरे,कार में बैठकर करते हैं उनकी चिंता 


'जय-जवान,जय-किशान' का नारा लगाते हैं 
नारे और भाषणों से बेवकूफ हमें बनाते हैं 
किशानों को लूट-लूट कर घर अपना बनाते हैं 
चोरी करते ये ख़ुद, और चोर हमें बताते हैं
आज की बात नहीं करते,हमें भविष्य बताते हैं 
माटी का सौगंध खा थूक कर चट कर जाते हैं  


देश की जनसंख्या का ८०%हमारी संख्या है 
२०%लोगों के पास, देश का ८०% पैसा है 
कृषि प्रमुख व्यवसाय, कृषि-देश का दर्जा है
गरीबी में डूबा किशान,कर रहा आत्महत्या है 
समस्याएं नहीं सुनती,गूंगी-बाहरी सरकार है 
उम्मीद नहीं कोई अब,नई रौशनी की तलाश है 










        



करमा

(करमा बैगा ,गोंड जन-जातियों में प्रचलित लोक नृत्य-गीत."मादर" पखवाज जैसा मिटटी का बना वाद्य-यंत्र)  
आ रही है कर्ण-प्रिय,सुरीली आवाज 
हजारों-हजार वर्ष पूर्व निकलकर  
पाषाण गुफाओं से 
आदिम काबीले की सुर-यात्रा  यह 
--स्वतःस्फूर्त,अनवरत 

विरह,प्रणय निवेदन के गीत 
मादर की थाप और करमा के बोल 
शैला-नृत्य करते गन्धर्व 
वर्जनाओं से मुक्त,मद-लिप्त 
मंद्र,मध्य,तेज उत्स-लय अनुगुंजित हो 
प्रतिध्वनित हो रही है घाटियों में 
सुर में सुर मिला रहे हैं शिखर मानो 
सभासद सालवन कर रहे करतल 
थिरकती मंद-मंद पवन मद में हो 
सूखे पत्ते करते पद-ताल 
कभी रेखीय,कभी वर्तुल चाल 
सभापति मध्य-रात्रि-कलानिधि 
उच्चासन नभ में आभामय 
सितारे दे रहे ताल 
  

शनिवार, 4 अगस्त 2012

क्षणिका


"रक्षा-बंधन में
मायके  नहीं जायेगी"
कह,सास उठ वहां से
पैर पटकती चली गयी
कपोलों में खिच आये
दो काजल रेखाएं उसके 
केवल घूंघट ने देखा
,,फिर सहलाकर पोंछा 

बुधवार, 1 अगस्त 2012


हम भी खाते हैं,तुम भी खाओ
इस महाभोज में भूखे क्यों हो  


तुम भी कमाओ,हम भी कमायें 
मुनाफे की बात बस आम न हो 


जाल बिछाओ,मछली फसाओ 
जाल में पहले दाना लगाओ 


तुम खुश रहो, हम खुश रहें 
हंसी-खुशी से व्यवसाय करो 


हमें खाते,वो भूखा देख रहा है
जाओ घर के परदे गिराओ
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